Thursday 26 July 2012

अमीर खुसरो


 


खडी बोली हिन्दी के प्रथम कवि अमीर खुसरो एक सूफीयाना कवि थे और ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के मुरीद थेइनका जन्म ईस्वी सन् 1253 में हुआ थाइनके जन्म से पूर्व इनके पिता तुर्क में लाचीन कबीले के सरदार थेमुगलों के जुल्म से घबरा कर इनके पिता अमीर सैफुद्दीन मुहम्मद हिन्दुस्तान भाग आए थे और उत्तरप्रदेश के ऐटा जिले के पटियाली नामक गांव में जा बसेइत्तफाकन इनका सम्पर्क सुल्तान शमसुद्दीन अल्तमश के दरबार से हुआ, उनके साहस और सूझ-बूझ से ये सरदार बन गए और वहीं एक नवाब की बेटी से शादी हो गई और तीन बेटे पैदा हुए उनमें बीच वाले अबुल हसन ही अमीर खुसरो थेइनके पिता खुद तो खास पढे न थे पर उन्होंने इनमें ऐसा कुछ देखा कि इनके पढने का उम्दा इंतजाम कियाएक दिन वे इन्हें ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के पास ले गए जो कि उन दिनों के जाने माने सूफी संत थेतब इनके बालमन ने उत्सुकता वश जानना चाहा कि वे यहाँ क्यों लाए गए हैं? तब पिता ने कहा कि तुम इनके मुरीद बनोगे और यहीं अपनी तालीम हासिल करोगे
उन्होंने पूछा -  मुरीद क्या होता है?

उत्तर मिला -  मुरीद होता है, इरादा करने वाला
ज्ञान प्राप्त करने का इरादा करने वाला
बालक अबुल हसन ने मना कर दिया कि उसे नहीं बनना किसीका मुरीद और वे दरवाजे पर ही बैठ गए, उनके पिता अन्दर चले गएबैठे-बैठे इन्होंने सोचा कि ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया अगर ऐसे ही पहुँचे हुए हैं तो वे अन्दर
बैठे-बैठे ही मेरी बात समझ जाएंगे, जो मैं सोच रहा
हूँ।
और उन्होंने मन ही मन संत से पूछा कि  मैं अन्दर आऊं या बाहर से ही लौट जाऊं?
तभी अन्दर से औलिया का सेवक हाजिर हुआ और उसने इनसे कहा कि -
'ख्वाजा साहब ने कहलवाया है कि जो तुम अपने दिल में मुझसे पूछ रहे हो, वह मैं ने जान लिया है, और उसका जवाब यह है कि अगर तुम सच्चाई की खोज करने का इरादा लेकर आए हो तो अन्दर आ जाओ। लेकिन अगर तुम्हारे मन में सच्चाई की जानकारी हासिल करने की तमन्ना नहीं है तो जिस रास्ते से आए हो वापस चले जाओ।
फिर क्या था वे जा लिपटे अपने ख्वाजा के कदमों सेतब से इन पर काव्य और गीत-संगीत का नशा सा तारी हो गया और इन्होंने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया को अपना प्रिय मान अनेकों गज़लें और शेर कहेकई दरबारों में अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाया और राज्य कवि बनेपर इनका मन तो ख्वाजा में रमता था और ये भटकते थे उस सत्य की खोज में जिसकी राह दिखाई थी ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने
एक बार की बात हैतब खुसरो गयासुद्दीन तुगलक के दिल्ली दरबार में दरबारी थेतुगलक खुसरो को तो चाहता था मगर हजरत निजामुद्दीन के नाम तक से चिढता थाखुसरो को तुगलक की यही बात नागवार गुजरती थीमगर वह क्या कर सकता था, बादशाह का मिजाजबादशाह एक बार कहीं बाहर से दिल्ली लौट रहा था तभी चिढक़र उसने खुसरो से कहा कि हजरत निजामुद्दीन को पहले ही आगे जा कर यह संदेस दे दे कि बादशाह के दिल्ली पहुँचने से पहले ही वे दिल्ली छोड क़र चले जाएं
खुसरो को बडी तकलीफ हुई, पर अपने सन्त को यह संदेस कहा और पूछा अब क्या होगा?
'' कुछ नहीं खुसरो! तुम घबराओ मत। हनूज दिल्ली दूरअस्त - यानि अभी बहुत दिल्ली दूर है।
सचमुच बादशाह के लिये दिल्ली बहुत दूर हो गईरास्ते में ही एक पडाव के समय वह जिस खेमे में ठहरा था, भयंकर अंधड से वह टूट कर गिर गया और फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई
तभी से यह कहावत  अभी दिल्ली दूर है पहले खुसरो की शायरी में आई फिर हिन्दी में प्रचलित हो गई
छह वर्ष तक ये जलालुद्दीन खिलजी और उसके पुत्र अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में भी रहे ये तब भी अलाउद्दीन खिलजी के करीब थे जब उसने चित्तौड ग़ढ क़े राजा रत्नसेन की पत्नी पद्मिनी को हासिल करने की ठान ली थीतब ये उसके दरबार के  खुसरु-ए-शायरा के खिताब से सुशोभित थेइन्होंने पद्मिनी को बल के जोर पर हासिल करने के प्रति अलाउद्दीन खिलजी का नजरिया बदलने की कोशिश की यह कह कर कि ऐसा करने से असली खुशी नहीं हासिल होगी, स्त्री हृदय पर शासन स्नेह से ही किया जा सकता है, वह सच्ची राजपूतानी जान दे देगी और आप उसे हासिल नहीं कर सकेंगेऔर अलाउद्दीन खिलजी ने खुसरो की बात मान ली कि हम युध्द से उसे पाने का इरादा तो तर्क करते हैं लेकिन जिसके हुस्न के चर्चे पूरे हिन्द में हैं, उसका दीदार तो करना ही चाहेंगे
तब स्वयं खुसरो पद्मिनी से मिलेशायर खुसरो के काव्य से परिचित पद्मिनी उनसे बिना परदे के मिलीं और उनका सम्मान कियारानी का हुस्न देख स्वयं खुसरो दंग रह गएफिर उन्होंने रानी को अलाउद्दीन खिलजी के बदले इरादे से वाकिफ कराया कि आप अगर युध्द टालना चाहें तो एक बार उन्हें स्वयं को देख भर लेने देंइस पर रानी का जवाब नकारात्मक था कि इससे भी उनकी आत्मा का अपमान होगाइस पर अनेकानेक तर्कों और राजपूतों की टूटती शक्ति और युध्द की संभावना के आपत्तिकाल में पडी रानी ने अप्रत्यक्षत: अपना चेहरा दर्पण के आगे ऐसे कोण पर बैठ कर अलाउद्दीन खिलजी को दिखाना मंजूर किया कि वह दूर दूसरे महल में बैठ कर मात्र प्रतिबिम्ब देख सकेकिन्तु कुछ समय बाद जब अलाउद्दीन खिलजी ने उनका अक्स आईने में देखा तो बस देखता ही रह गया, भूल गया अपने फैसले को, और पद्मिनी के हुस्न का जादू उसके सर चढ ग़या, इसी जुनून में वह उसे पाने के लिये बल प्रयोग कर बैठा और पद्मिनी ने उसके नापक इरादों को भांप उसके महल तक पहुँचने से पहले ही जौहर कर लिया था
इस घटना का गहरा असर अमीर खुसरो के मन पर पडाऔर वे हिन्द की संस्कृति से और अधिक जुड ग़एऔर उन्होंने माना कि अगर हम तुर्कों को हिन्द में रहना ही तो पहले हमें हिन्दवासियों के दिल में रहना होगा और इसके लिये पहली जरूरत है कि हम  हिन्दवी  सीखें  हिन्दवी  किसी तरह से अरबी-फारसी के मुकाबले कमतर नहींदिल्ली के आस-पास बोली जाने वाली भाषा को ' हिन्दवी  नाम सबसे पहले खुसरो ने ही दिया थायही शब्द बाद में हिन्दी बना और यही तुर्की कवि हिन्दी का पहला कवि बना
ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया हर रोज ईशा की नमाज के बाद एकान्तसाधना में तल्लीन हो जाया करते थेऔर इस एकान्त में विघ्न डालने की अनुमति किसी शिष्य को न थी सिवाय खुसरो केऔलिया इन्हें जी जान से चाहते थेवे कहते - मैं और सब से ऊब सकता हूँ , हाँ तक कि अपने आप से भी उकता जाता हूँ कभी-कभी लेकिन खुसरो से नहीं उकता सकता कभीऔर यह भी कहा करते थे कि  तुम खुदा से दुआ मांगो कि मेरी उम्र लम्बी हो, क्योंकि मेरी जिंदगी से ही तेरी जिन्दगी जुडी हैमेरे बाद तू ज्यादा दिन नहीं जी सकेगा, यह मैं अभी से जान गया हूँ खुसरो, मुझे अपनी लम्बी उम्र की ख्वाहिश नहीं लेकिन मैं चाहता हूँ तू अभी और जिन्दा रह और अपनी शायरी से जहां महका
और हुआ भी यही, अमीर खुसरो किसी काम से दिल्ली से बाहर कहीं गए हुए थे वहीं उन्हें अपने ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के निधन का समाचार मिलासमाचार क्या था खुसरो की दुनिया लुटने की खबर थीवे सन्नीपात की अवस्था में दिल्ली पहुँचे , धूल-धूसरित खानकाह के द्वार पर खडे हो गए और साहस न कर सके अपने पीर की मृत देह को देखने काआखिरकार जब उन्होंने शाम के ढलते समय पर उनकी मृत देह देखी तो उनके पैरों पर सर पटक-पटक कर मूर्छित हो गएऔर उसी बेसुध हाल में उनके होंठों से निकला,
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने सांझ भई चहुं देस
।।
अपने प्रिय के वियोग में खुसरो ने संसार के मोहजाल काट फेंकेधन-सम्पत्ति दान कर, काले वस्त्र धारण कर अपने पीर की समाधि पर जा बैठे - कभी न उठने का दृढ निश्चय करकेऔर वहीं बैठ कर प्राण विसर्जन करने लगेकुछ दिन बाद ही पूरी तरह विसर्जित होकर खुसरो के प्राण अपने प्रिय से जा मिलेपीर की वसीयत के अनुसार अमीर खुसरो की समाधि भी अपने प्रिय की समाधि के पास ही बना दी गई
आज तक दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन की समाधि के पास बनी अमीर खुसरो की समाधि मौजूद हैहर बरस यहाँ उर्स मनाया जाता हैहर उर्स का आरंभ खुसरो के इसी अंतिम दोहे से किया जाता है - गोरी सोवे सेज पर
अमीर खुसरो की 99 पुस्तकों का उल्लेख मिलता है, किन्तु 22 ही अब उपलब्ध हैंहिन्दी में खुसरो की तीन रचनाएं मानी जाती हैं, किन्तु इन तीनों में केवल एक खालिकबारी उपलब्ध हैइसके अतिरिक्त खुसरो की फुटकर रचनाएं भी संकलित है, जिनमें पहेलियां, मुकरियां, गीत, निस्बतें और अनमेलियां हैंये सामग्री भी लिखित में कम उपलब्ध थीं, वाचक रूप में इधर-उधर फैली थीं, जिसे नागरी प्रचारिणी सभा ने खुसरो की हिन्दी कविता नामक छोटी पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था
खुसरो के गीत
बहोत रही बाबुल घर दुल्हन, चल तोरे पी ने बुलाई
बहोत खेल खेली सखियन से, अन्त करी लरिकाई

बिदा करन को कुटुम्ब सब आए, सगरे लोग लुगाई

चार कहार मिल डोलिया उठाई, संग परोहत और भाई

चले ही बनेगी होत क
हाँ है, नैनन नीर बहाई
अन्त बिदा हो चलि है दुल्हिन, काहू कि कछु न बने आई

मौज-खुसी सब देखत रह गए, मात पिता और भाई

मोरी कौन संग लगन धराई, धन-धन तेरि है खुदाई

बिन मांगे मेरी मंगनी जो कीन्ही, नेह की मिसरी खिलाई

एक के नाम कर दीनी सजनी, पर घर की जो ठहराई

गुण नहीं एक औगुन बहोतेरे, कैसे नोशा रिझाई

खुसरो चले ससुरारी सजनी, संग कोई नहीं आई
यह सूफी कविता मृत्यु के बाद ईश्वर रूपी नौशे से मिलन के दर्शन को दर्शाती है
बहुत कठिन है डगर पनघट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निजाम पिया

पनिया भरन को मैं जो गई थी
छीन-झपट मोरी मटकी पटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की

खुसरो निजाम के बल-बल जाइए
लाज राखी मेरे घूंघट पट की
कैसे मैं भर लाऊं मधवा से मटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की

इस कविता में त्यागमय जीवन की कठिनाईयों का उल्लेख हैइन कठिनाईयों से उबार इनके पीर निजाम ने ही उनकी लाज रख ली है

 - साईट हिंदीनेस्ट.कॉम से लिया गया

Wednesday 11 July 2012

संतकवि सूरदास

 

हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल में कृष्ण भक्ति के भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम अग्रणी है। उनका जन्म 1478 ईस्वी में मथुरा आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ था। कुछ लोगों का कहना है कि सूरदास जी का जन्म सीही नामक ग्राम में एक ग़रीब सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में वह आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे । सूरदास जी के पिता श्री रामदास गायक थे। सूरदास जी के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं। आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षा दे कर कृष्णलीला  पद गाने का आदेश दिया। सूरदास जी अष्टछाप कवियों में एक थे। सूरदास जी की मृत्यु गोवर्धन के पास पारसौली ग्राम में 1583 ईस्वी में हुई।


इनके बारे में ‘भक्तमाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में थोड़ी-बहुत जानकारी मिल जाती है। अकबर  बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। ‘भक्तमाल’ में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा इनकी अंधता का उल्लेख है। ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु के रूप में रहते थे। वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें यहाँ कीर्तन का कार्य सौंपा। सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे। उन्होंने अपने को ‘जन्म को आँधर’ कहा भी है। किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए। सूर के काव्य में प्रकृतियाँ और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे। उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती है कि तीव्र अंतर्द्वन्द्व के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखें फोड़ ली थीं। उचित यही मालूम पड़ता है कि वे जन्मांध नहीं थे। कालांतर में अपनी आँखों की ज्योति खो बैठे थे। सूरदास अब अंधों को कहते हैं। यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली है। सूर का आशय ‘शूर’ से है। शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे। 


धर्म, साहित्य और संगीत के सन्दर्भ में महाकवि सूरदास का स्थान न केवल हिन्दी-भाषा क्षेत्र, बल्कि सम्पूर्ण भारत में मध्ययुग की महान विभूतियों में अग्रगण्य है। यह सूरदास की लोकप्रियता और महत्ता का ही प्रमाण है कि 'सूरदास' नाम किसी भी अन्धे भक्त गायक के लिए रूढ़ सा हो गया है। मध्ययुग में इस नाम के कई भक्त कवि और गायक हो गये हैं अपने विषय में मध्ययुग के ये भक्त कवि इतने उदासीन थे कि उनका जीवन-वृत्त निश्चित रूप से पुन: निर्मित करना असम्भवप्राय हैं परन्तु इतना कहा जा सकता है कि 'सूरसागर' के रचयिता सूरदास इस नाम के व्यक्तियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध और महान थे और उन्हीं के कारण कदाचित यह नाम उपर्युक्त विशिष्ट अर्थ के द्योतक सामान्य अभिधान के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ये सूरदास विट्ठलनाथ द्वारा स्थापित अष्टछाप के अग्रणी भक्त कवि थे और पुष्टिमार्ग में उनकी वाणी का आदर बहुत कुछ सिद्धान्त वाक्य के रूप में होता है।

वल्लभाचार्य

'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में सूर का जीवनवृत्त गऊघाट पर हुई वल्लभाचार्य से उनकी भंट के साथ प्रारम्भ होता है। गऊघाट पर भी उनके अनेक सेवक उनके साथ रहते थे तथा 'स्वामी' के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। कदाचित इसी कारण एक बार अरैल से जाते समय वल्लभाचार्य ने उनसे भेंट की और उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। 'वार्ता' में वल्लभाचार्य और सूरदास के प्रथम भेंट का जो रोचक वर्णन दिया गया है, उससे व्यंजित होता है कि सूरदास उस समय तक कृष्ण की आनन्दमय ब्रजलीला से परिचित नहीं थे और वे वैराग्य भावना से प्रेरित होकर पतितपावन हरि की दैन्यपूर्ण दास्यभाव की भक्ति में अनुरक्त थे और इसी भाव के विनयपूर्ण पद रच कर गाते थे। वल्लभाचार्य ने उनका 'धिधियाना' (दैन्य प्रकट करना) छुड़ाया और उन्हें भगवद्-लीला से परिचत कराया। इस विवरण के आधार पर कभी-कभी यह कहा जाता है कि सूरदास ने विनय के पदों की रचना वल्लभाचार्य से भेंट होने के पहले ही कर ली होगी परन्तु यह विचार भ्रमपूर्ण है * वल्लभाचार्य द्वारा 'श्रीमद् भागवत' में वर्णित कृष्ण की लीला का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त सूरदास ने अपने पदों में उसका वर्णन करना प्रारम्भ कर दिया। 'वार्ता' में कहा गया है कि उन्होंने 'भागवत' के द्वादश स्कन्धों पर पद-रचना की। उन्होंने 'सहस्त्रावधि' पद रचे, जो 'सागर' कहलाये। वल्लभाचार्य के संसर्ग से सूरदास को "माहात्म्यज्ञान पूर्वक प्रेम भक्ति" पूर्णरूप में सिद्ध हो गयी। वल्लभाचार्य ने उन्हें गोकुल में श्रीनाथ जी के मन्दिर पर कीर्तनकार के रूप में नियुक्त किया और वे आजन्म वहीं रहे।

अकबर

सूरदास की पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति सुनकर देशाधिपति अकबर ने उनसे मिलने की इच्छा की। गोस्वामी हरिराय के अनुसार प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन के माध्यम से अकबर और सूरदास की भेंट मथुरा में हुई। सूरदास का भक्तिपूर्ण पद-गान सुनकर अकबर बहुत प्रसन्न हुए किन्तु उन्होंने सूरदास से प्रार्थना की कि वे उनका यशगान करें परन्तु सूरदास ने 'नार्हिन रहयो मन में ठौर' से प्रारम्भ होने वाला पद गाकर यह सूचित कर दिया कि वे केवल कृष्ण के यश का वर्णन कर सकते है, किसी अन्य का नहीं। इसी प्रसंग मे 'वार्ता' में पहली बार बताया गया है। कि सूरदास अन्धे थे। उपर्युक्त पर के अन्त में 'सूर से दर्श को एक मरत लोचन प्यास' शब्द सुनकर अकबर ने पूछा कि तुम्हारे लोचन तो दिखाई नहीं देते, प्यासे कैसे मरते है।


वार्ता' में सूरदास के जीवन की किसी अन्य घटना का उल्लेख नहीं है, केवल इतना बताया गया है कि वे भगवद्भक्तों को अपने पदों के द्वारा भक्ति का भावपूर्ण सन्देश देते रहते थे। कभी-कभी वे श्रीनाथ जी के मन्दिर से नवनीतप्रिय जी के मन्दिर भी चले जाते थे किन्तु हरिराय ने कुछ अन्य चमत्कारपूर्ण रोचक प्रसंगों का उल्लेख किया है। जिनसे केवल यह प्रकट होता है कि सूरदास परम भगवदीय थे और उनके समसामयिक भक्त कुम्भनदास,परमानंददास आदि उनका बहुत आदर करते थे। 'वार्ता' में सूरदास के गोलोकवास का प्रसंग अत्यन्त रोचक है। श्रीनाथ जी की बहुत दिनों तक सेवा करने के उपरान्त जब सूरदास को ज्ञात हुआ कि भगवान की इच्छा उन्हें उठा लेने की है तो वे श्रीनाथ जी के मन्दिर में पारसौली के चन्द्र सरोवर पर आकर लेट गये और दूर से सामने ही फहराने वाली श्रीनाथ जी की ध्वजा का ध्यान करने लगे।

शरीर त्याग

पारसौली वह स्थान है, जहाँ पर कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने रासलीला की थी। इस समय सूरदास को आचार्य वल्लभ, श्रीनाथ जी और गोसाई विठ्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती करते समय सूरदास को अनुपस्थित पाकर जान लिया कि सूरदास का अन्त समय निकट आ गया है। उन्होंने अपने सेवकों से कहा कि, "पुष्टिमार्ग का जहाज" जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले। आरती के उपरान्त गोसाई जी रामदास,कुम्भनदास,गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास के साथ सूरदास के निकट पहुँचे और सूरदास को, जो अचेत पड़े हुए थे, चैतन्य होते हुए देखा। सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात् भगवान के रूप में अभिनन्दन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की। चतुर्भुजदास ने इस समय शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, परन्तु आचार्य वल्लभ का यशगान क्यों नहीं किया। सूरदास ने बताया कि उनके निकट आचार्य जी और भगवान में कोई अन्तर नहीं है-जो भगवतयश है, वही आचार्य जी का भी यश है। गुरु के प्रति अपना भाव उन्होंने "भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो" वाला पद गाकर प्रकट किया। इसी पद में सूरदास ने अपने को "द्विविध आन्धरो" भी बताया। गोसाई विट्ठलनाथ ने पहले उनके 'चित्त की वृत्ति' और फिर 'नेत्र की वृत्ति' के सम्बन्ध में प्रश्न किया तो उन्होंने क्रमश: बलि बलि बलि हों कुमरि राधिका नन्द सुवन जासों रति मानी' तथा 'खंजन नैन रूप रस माते' वाले दो पद गाकर सूचित किया कि उनका मन और आत्मा पूर्णरूप से राधा भाव में लीन है। इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया। 


सूरदास की सर्वसम्मत प्रामाणिक रचना 'सूरसागर' हैं। एक प्रकार से 'सूरसागर' जैसा कि उसके नाम से सूचित होता है, उनकी सम्पूर्ण रचनाओं का संकलन कहा जा सकता है* 'सूरसागर' के अतिरिक्त 'साहित्य लहरी' और 'सूरसागर सारावली' को भी कुछ विद्वान् उनकी प्रामाणिक रचनाएँ मानते हैं परन्तु इनकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है * । सूरदास के नाम से कुछ अन्य तथाकथित रचनाएँ भी प्रसिद्ध हुई हैं परन्तु वे या तो 'सूरसागर' के ही अंश हैं अथवा अन्य कवियों को रचनाएँ हैं। 'सूरसागर' के अध्ययन से विदित होता है कि कृष्ण की अनेक लीलाओं का वर्णन जिस रूप में हुआ है, उसे सहज ही खण्ड-काव्य जैसे स्वतन्त्र रूप में रचा हुआ भी माना जा सकता है। प्राय: ऐसी लीलाओं को पृथक् रूप में प्रसिद्धि भी मिल गयी है। इनमें से कुछ हस्तलिखित रूप में तथा कुछ मुद्रित रूप में प्राप्त होती हैं। उदाहरण के लिए 'नागलीला' जिसमें कालियदमन   का वर्णन हुआ है, 'गोवर्धन लीला' जिसमें कालियदमन का वर्णन हुआ है, 'नागलीला', जिसमें गोवर्धनधारण और इन्द्र के शरणागमन का वर्णन है, 'प्राण प्यारी' जिसमें प्रेम के उच्चादर्श का पच्चीस दोहों में वर्णन हुआ है, मुद्रित रूप में प्राप्त हैं। हस्तलिखित रूप में 'व्याहलों' के नाम से राधा-कृष्ण विवाहसम्बन्धीप्रसंग, 'सूरसागर सार' नाम से रामकथा और रामभक्ति सम्बन्धी प्रसंग तथा 'सूरदास जी के दृष्टकूट' नाम से कूट-शैली के पद पृथक् ग्रन्थों में मिले हैं। इसके अतिरिक्त 'पद संग्रह', 'दशम स्कन्ध', 'भागवत', 'सूरसाठी' , 'सूरदास जी के पद' आदि नामों से 'सूरसागर' के पदों के विविध संग्रह पृथक् रूप में प्राप्त हुए है। ये सभी 'सूरसागर के' अंश हैं। वस्तुत: 'सूरसागर' के छोटे-बड़े हस्तलिखित रूपों के अतिरिक्त उनके प्रेमी भक्तजन समय-समय पर अपनी-अपनी रूचि के अनुसार 'सूरसागर' के अंशो को पृथक् रूप में लिखते-लिखाते रहे हैं। 'सूरसागर' का वैज्ञानिक रीति से सम्पादित प्रामाणिक संस्करण निकल जाने के बाद ही कहा जा सकता है कि उनके नाम से प्रचलित संग्रह और तथाकथित ग्रन्थ कहाँ तक प्रमाणित हैं।


सूरदास के काव्य से उनके बहुश्रुत, अनुभव सम्पन्न, विवेकशील और चिन्तनशील व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। उनका हृदय गोप बालकों की भाँति सरल और निष्पाप, ब्रज गोपियों की भाँति सहज संवेदनशील, प्रेम-प्रवण और माधुर्यपूर्ण तथा नन्द और यशोदा की भाँति सरल-विश्वासी, स्नेह-कातर और आत्म-बलिदान की भावना से अनुप्रमाणित था। साथ ही उनमें कृष्ण जैसी गम्भीरता और विदग्धता तथा राधा जैसी वचन-चातुरी और आत्मोत्सर्गपूर्ण प्रेम विवशता भी थी। काव्य में प्रयुक्त पात्रों के विविध भावों से पूर्ण चरित्रों का निर्माण करते हुए वस्तुत: उन्होंने अपने महान व्यक्तित्व की ही अभिव्यक्ति की है। उनकी प्रेम-भक्ति के सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भावों का चित्रण जिन आंख्य संचारी भावों , अनगिनत घटना-प्रसंगों बाह्य जगत् प्राकृतिक और सामाजिक-के अनन्त सौन्दर्य चित्रों के आश्रय से हुआ है, उनके अन्तराल में उनकी गम्भीर वैराग्य-वृत्ति तथा अत्यन्त दीनतापूर्ण आत्म निवेदात्मक भक्ति-भावना की अन्तर्धारा सतत प्रवहमान रही है परन्तु उनकी स्वाभाविक विनोदवृत्ति तथा हास्य प्रियता के कारण उनका वैराग्य और दैन्य उनके चित्तकी अधिक ग्लानियुक्त और मलिन नहीं बना सका। आत्म हीनता की चरम अनुभूति के बीच भी वे उल्लास व्यक्त कर सके। उनकी गोपियाँ विरह की हृदय विदारक वेदना को भी हास-परिहास के नीचे दबा सकीं। करुण और हास का जैसा एकरस रूप सूर के काव्य में मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। सूर ने मानवीय मनोभावों और चित्तवृत्तियों को, लगता है, नि:शेष कर दिया है। यह तो उनकी विशेषता है ही परन्तु उनकी सबसे बड़ी विशेषता कदाचित यह है कि मानवीय भावों को वे सहज रूप में उस स्तर पर उठा सके, जहाँ उनमें लोकोत्तरता का संकेत मिलते हुए भी उनकी स्वाभाविक रमणीयता अक्षुण्ण ही नहीं बनी रहती, बल्कि विलक्षण आनन्द की व्यंजना करती है। सूर का काव्य एक साथ ही लोक और परलोक को प्रतिबिम्बित करता है।  
सूर की रचना परिमाण और गुण दोनों में महान कवियों के बीच अतुलनीय है। आत्माभिव्यंजना के रूप में इतने विशाल काव्य का सर्जन सूर ही कर सकते थे क्योंकि उनके स्वात्ममुं सम्पूर्ण युग जीवन की आत्मा समाई हुई थी। उनके स्वानुभूतिमूलक गीतिपदों की शैली के कारण प्राय: यह समझ लिया गया हे कि वे अपने चारों ओर के सामाजिक जीवन के प्रति पूर्ण रूप में सजग नहीं थे परन्तु प्रचारित पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर यहदि देखा जाय तो स्वीकार किया जाएगा कि सूर के काव्य में युग जीवन की प्रबुद्ध आत्मा का जैसा स्पन्दन मिलता है, वैसा किसी दूसरे कवि में नहीं मिलेगा। यह अवश्य है कि उन्होंने उपदेश अधिक नहीं दिये, सिद्धान्तों का प्रतिपादन पण्डितों की भाषा में नहीं किया, व्यावहारिक अर्थात् सांसारिक जीवन के आदर्शों का प्रचार करने वाले सुधारक का बना नहीं धारण किया परन्तु मनुष्य की भावात्मक सत्ता का आदर्शीकृत रूप गढ़ने में उन्होंने जिस व्यवहार बुद्धि का प्रयोग किया है। उससे प्रमाणित होता है कि वे किसी मनीषी से पीछे नहीं थे। उनका प्रभाव सच्चे कान्ता सम्मित उपदेश की भाँति सीधे हृदय पर पड़ता है। वे निरे भक्त नहीं थे, सच्चे कवि थे-ऐसे द्रष्टा कवि, जो सौन्दर्य के ही माध्यम से सत्य का अन्वेषण कर उसे मूर्त रूप देने में समर्थ होते हैं।






































































































































































































































































































































































































































































Thursday 14 June 2012

संत ज्ञानेश्वर





संत ज्ञानेश्वर ( 1275 - 1296 )


संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र के एक महान् सन्त् थे जिन्होने ज्ञानेश्वरी की रचना की। संत ज्ञानेश्वर की गणना भारत के महान संतों एवं मराठी कवियों में होती है ।

संत ज्ञानेश्वर का जन्म १२७५ ईसवी में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास आपेगाँव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत एवं माता का नाम रुक्मिणी बाई था। मुक्ताबाई इनकी बहन थीं। इनके दोंनों भाई निवृत्तिनाथ एवं सोपानदेव भी संत स्वभाव के थे ।


संत ज्ञानेश्वर जी को  आज हम उनके रचित अद्भुत ग्रन्थ जो की श्रीमद भगवद गीता का
भाष्य है के लिए सर्वाधिक जानते हैं । ये टीका जो 'ज्ञानेश्वरी' नाम से प्रसिद्द है आज भी सर्व साधारण को उपलब्ध है और ये स्वयं अपने आप में एक चमत्कार है क्यूंकि ये संत ज्ञानेश्वर जी ने मात्र 15 वर्ष 
की आयु में लिखी और एक एक श्लोक को ऐसे समझाया है की उसका तत्व साधारण जन को न न सिर्फ समझ में आ जाए अपितु वो पठन के साथ ही ज्ञान को प्राप्त हो जाए ।

संत ज्ञानेश्वर के पूर्वज पैठण के पास गोदावरी तट के निवासी थे और बाद में 'आलंदी' नामक गाँव में बस गए थे। ज्ञानेश्वर के पितामह 'त्र्यंबक पंत' गोरखनाथ के शिष्य और परम भक्त थे। ज्ञानेश्वर जी  के पिता विट्ठल पंत इन्हीं त्र्यंबक पंत के पुत्र थे। विट्ठल पंत बड़े विद्वान और भक्त थे। उन्होंने देशाटन करके शास्त्रों का अध्ययन किया था। उनके विवाह के कई वर्ष हो गए थे पर कोई संतान नहीं हुई। इस पर उन्होंने संन्यास लेने का निश्चय किया, पर स्त्री इसके पक्ष में नहीं थी। इसलिए वे चुपचाप घर से निकलकर काशी में स्वामी रामानंद के पास पहुँचे और यह कहकर कि संसार में मैं अकेला हूं, उनसे संन्यास की दीक्षा ले ली।

जन्म


कुछ समय बाद स्वामी रामानंद दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए आलंदी गाँव पहुँचे। वहाँ जब विट्ठल पंत की पत्नी ने उन्हें प्रणाम किया, तो स्वामी जी ने उसे पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया। इस पर विट्ठल पंत की पत्नी रूक्मिणी बाई ने कहा- मुझे आप पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे रहे हैं, पर मेरे पति को तो आपने पहले ही संन्यासी बना लिया है। इस घटना के बाद स्वामी जी ने काशी आकर विट्ठल पंत को फिर गृहस्य जीवन अपनाने की आज्ञा दी। उसके बाद ही उनके तीन पुत्र और कन्या पैदा हुई। ज्ञानेश्वर इन्हीं में से एक थे। संत ज्ञानेश्वर के दोंनों भाई 'निवृत्तिनाथ' एवं 'सोपानदेव' भी संत स्वभाव के थे। इनकी बहिन का नाम 'मुक्ताबाई' था।

माता-पिता की मृत्यु


संन्यास छोड़कर गृहस्थ बनने के कारण समाज ने ज्ञानेश्वर के पिता विट्ठल पंत का बहिष्कार कर दिया। वे कोई भी प्रायश्चित करने के लिए तैयार थे, पर शास्त्रकारों ने बताया कि उनके लिए देह त्यागने के अतिरिक्त कोई और प्रायश्चित नहीं है और उनके पुत्र भी जनेऊ धारण नहीं कर सकते। इस पर विट्ठल पंत ने प्रयाग में त्रिवेणी में जाकर अपनी पत्नी के साथ संगम में डूबकर प्राण दे दिए। बच्चे अनाथ हो गए। लोगों ने उन्हें गाँव के अपने घर में भी नहीं रहने दिया। अब उनके सामने भीख माँगकर पेट पालने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं रह गया।

शुद्धिपत्र की प्राप्ति


बाद के दिनों में ज्ञानेश्वर के बड़े भाई निवृत्तिनाथ की गुरु गैगीनाथ से भेंट हो गई। वे विट्ठल पंत के गुरु रह चुके थे। उन्होंने निवृत्तिनाथ को योगमार्ग की दीक्षा और कृष्ण उपासना का उपदेश दिया। बाद में निवृत्तिनाथ ने ज्ञानेश्वर को भी दीक्षित किया। फिर ये लोग पंडितों से शुद्धिपत्र लेने के उद्देश्य से पैठण पहुँचे। वहाँ रहने के दिनों की ज्ञानेश्वर की कई चमत्कारिक कथाएँ प्रचलित हैं। कहते हैं, उन्होंने भैंस के सिर पर हाथ रखकर उसके मुँह से वेड मन्त्रों का उच्चारण कराया। भैंस को जो डंडे मारे गए, उसके निशान ज्ञानेश्वर के शरीर पर उभर आए। यह सब देखकर पैठण के पंडितों ने ज्ञानेश्वर और उनके भाई को शुद्धिपत्र दे दिया। अब उनकी ख्याति अपने गाँव तक पहुँच चुकी थी। वहाँ भी उनका बड़े प्रेम से स्वागत हुआ।

रचनाएँ


पंद्रह वर्ष की उम्र में ही ज्ञानेश्वर कृष्णभक्त और योगी बन चुके थे। बड़े भाई निवृत्तिनाथ के कहने पर उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही भगवद्गीता पर टीका लिख डाली। ‘ज्ञानेश्वरी’ नाम का यह ग्रन्थ मराठी भाषा का अद्वितीय ग्रंथ माना जाता है। यह ग्रंथ 10,000 पद्यों में लिखा गया है। यह भी अद्वैत-वादी रचना है, किंतु यह योग पर भी बल देती है। 28 अभंगों (छंदों ) की इन्होंने 'हरिपाठ' नामक एक पुस्तिका लिखी है, जिस पर भागवतमत का प्रभाव है। भक्ति का उदगार इसमें अत्यधिक है। मराठी संतों में ये प्रमुख समझे जाते हैं। इनकी कविता दार्शनिक तथ्यों से पूर्ण है तथा शिक्षित जनता पर अपना गहरा प्रभाव डालती है। इसके अतिरिक्त संत ज्ञानेश्वर के रचित कुछ अन्य ग्रंथ हैं- ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेवपासष्टी’, ‘योगवसिष्ठ टीका’ आदि। ज्ञानेश्वर ने उज्जयनी,प्रयाग,काशी,गया,अयोध्या,वृन्दावन,द्वारका,पंडरपुर आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की।

देहावसान


संत ज्ञानेश्वर का देहावसान 1296 ई. में हुआ । इन्होंने मात्र 21 वर्ष की उम्र में इस नश्वर संसार का परित्यागकर समाधि ग्रहण कर ली।





Tuesday 5 June 2012

संत तुकाराम



संत तुकाराम का जन्म पूना जिले के अंतर्गत देहू नामक ग्राम में शके 1520; सन्‌ 1598 में हुआ। इनकी जन्मतिथि के संबंध में विद्वानों में मतभेद है तथा सभी दृष्टियों से विचार करने पर शके 1520 में जन्म होना ही मान्य प्रतीत होता है। पूर्व के आठवें पुरुष विश्वंभर बाबा से इनके कुल में विट्ठल की उपासना बराबर चली आ रही थी। इनके कुल के सभी लोग पंढरपुर की यात्रा (वारी) के लिये नियमित रूप से जाते थे। देहू गाँव के महाजन होने के कारण वहाँ इनका कुटूंब प्रतिष्ठित माना जाता था। इनकी बाल्यावस्था माता कनकाई व पिता बहेबा की देखरेख में अत्यंत दुलार से बीती, किंतु जब ये प्राय: 18 वर्ष के थे इनके मातापिता का स्वर्गवास हो गया तथा इसी समय देश में पड़ भीषण अकाल के कारण इनकी प्रथम पत्नी व छोटे बालक की भूख के कारण तड़पते हुए मृत्यु हो गई। विपत्तियों की ज्वालाओं में झुलसे हुए तुकाराम का मन प्रपंच से ऊब गया। इनकी दूसरी पत्नी जीजा बाई बड़ी ही कर्कशा थी। ये सांसारिक सुखों से विरक्त हो गए। चित्त को शांति मिले, इस विचार से तुकाराम प्रतिदिन देहू गाँव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर जाते और भगवान्‌ विट्ठल के नामस्मरण में दिन व्यतीत करते।
प्रपचपराड्म़ुख हो तन्मयता से परमेश्वर प्राप्ति के लिये उत्कंठित तुकाराम को बाबा जी चैतन्य नामक साधु ने माघ शुद्ध 10 शके 1541 में 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया। इसके उपरांत इन्होंने 17 वर्ष संसार को समान रूप से उपदेश देने में व्यतीत किए। सच्चे वैराग्य तथा क्षमाशील अंत:करण के कारण इनकी निंदा करनेवाले निंदक भी पश्चताप करते हूए इनके भक्त बन गए। इस प्रकार भगवत धर्म का सबको उपदेश करते व परमार्थ मार्ग को आलोकित करते हुए अधर्म का खंडन करनेवाले तुकाराम ने फाल्गुन बदी (कृष्ण) द्वादशी, शके 1571 को देवविसर्जन किया।
तुकाराम के मुख से समय समय पर सहज रूप से परिस्फुटित होनेवाली 'अभंग' वाणी के अतिरिक्त इनकी अन्य कोई विशेष साहित्यिक कृति नहीं है। अपने जीवन के उत्तरार्ध में इनके द्वारा गाए गए तथा उसी क्षण इनके शिष्यों द्वारा लिखे गए लगभग 4000 अभंग आज उपलब्ध हैं।
संत ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई 'ज्ञानेश्रवरी' तथा श्री एकनाथ द्वारा लिखित 'एकनाथी भागवत' के बारकरी संप्रदायवालों के प्रमुख धर्मग्रंथ हैं। इस वांड्मय की छाप तुकाराम के अंभंगों पर दिखलाई पड़ती हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में इन पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया। इन तीनों संत कवियों के सहित्य में एक ही आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है तथा तीनों के पारमार्थिक विचारों का अंतरंग भी एकरूप है। ज्ञानदेव की सुमधुर वाणी काव्यालंकार से मंडित है, एकनाथ की भाषा विस्तृत और रस्प्लावित है पर तुकाराम की वाणी सूत्रबद्ध, अल्पाक्षर, रमणीय तथा मर्मभेदक हैं।
तुकाराम का अभंग वाड्मय अत्यंत आत्मपर होने के कारण उसमें उनके पारमार्थिक जीवन का संपूर्ण दर्शन होता है। कौटुंबिक आपत्तियों से त्रस्त एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी संत बन सका, इसका स्पष्ट रूप उनके अभंगों में दिखलाई पड़ता है। उनमें उनके आध्यात्मिक चरित्र की साकार रूप में तीन अवस्थाएँ दिखलाई पड़ती हैं।
प्रथम साधक अवस्था में तुकाराम मन में किए किसी निश्चयानुसार संसार से निवृत तथा परमार्थ की ओर प्रवृत दिखलाई पड़ते हैं।
दूसरी अवस्था में ईश्वर साक्षात्कार के प्रयत्न को असफल होते देखकर तुकाराम अत्यधिक निराशा की स्थिति में जीवन यापन करने लगे। उनके द्वारा अनुभूत इस चनम नैराश्य का जो सविस्तार चित्रण अंभंग वाणी में हुआ हैं उसकी हृदयवेधकता मराठी भाषा में सर्वथा अद्वितीय है।
किंकर्तव्यमूढ़ता के अंधकार में तुकाराम जी की आत्मा को तड़पानेवाली घोर तमस्विनी का शीघ्र ही अंत हुआ और आत्म साक्षात्कार के सूर्य से आलोकित तुकाराम ब्रह्मानंद में विभोर हो गए। उनके आध्यात्मिक जीवनपथ की यह अंतिम एवं चिरवांछित सफलता की अवस्था थी।
इस प्रकार ईश्वरप्राप्ति की साधना पूर्ण होने के उपरांत तुकाराम के मुख से जो उपदेशवाणी प्रकट हुई वह अत्यंत महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण है। स्वभावत: स्पष्टवादी होने के कारण इनकी वाणी में जो कठोरता दिखलाई पड़ती है, उसके पीछे इनका प्रमुख उद्देश्य समाज से दुष्टों का निर्दलन कर धर्म का संरक्षण करना ही था। इन्होने सदैव सत्य का ही अवलंबन किया और किसी की प्रसन्नता और अप्रसन्नता की ओर ध्यान न देते हुए धर्मसंरंक्षण के साथ साथ पाखंडखंडन का कार्य निरंतर चलाया। दाभिक संत, अनुभवशून्य पोथीपंडित, दुराचारी धर्मगुरु इत्यादि समाजकंटकों की उन्होने अत्यंत तीव्र आलोचना की है।
तुकाराम मन से भाग्यवादी थे अत: उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराशा, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होने सांसारिकों के लिये 'संसार का त्याग करो' इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए।
काव्य दृष्टि से भाग्यवादी थे अत: उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराश, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होनें सांसारिकों के लिये 'संसार का त्याग करो' इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए।
तुकाराम की अधिकांश काव्यरचना कैबल अभंग छंद में ही है, तथापि उन्होंने रूपकात्मक रचनाएँ भी की हैं। सभी रूपक काव्य की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इनकी वाणी श्रोताओं के कान पर पड़ते ही उनके हृदय को पकड़ लेने का अद्भुत सामर्थ्य रखती है। इनके काव्यों में अलंकारों का या शब्दचमत्कार का प्राचुर्य नहीं है। इनके अभंग सूत्रबद्ध होते हैं। थोड़े शब्दों में महान्‌ अर्थों को व्यक्त करने का इनका कौशल मराठी साहित्य में अद्वितीय है।
तुकाराम की आत्मनिष्ठ अभंगवाणी जनसाधारण को भी परम प्रिय लगती है। इसका प्रमुख कारण है कि सामान्य मानव के हृदय में उद्भूत होनेवाले सुख, दु:ख, आशा, निराशा, राग, लोभ आदि का प्रकटीकरण इसमें दिखलाई पड़ता है। तुकाराम के वाड्मंय ने जनका के हृदय में ध्रुव स्थान प्राप्त कर लिया है। ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि संतों ने भागवत धर्म की पत्ताका को अपने कंधों पर ही लिया था किंतु तुकाराम ने उसे अपने जीवनकाल ही में अधिक ऊँचे स्थान पर फहरा दिया। उन्होने अध्यात्मज्ञान को सुलभ बनाया तथा भक्ति का डंका बजाते हुए आवाल वृद्धो के लिये सहज सुलभ साध्य ऐसे भक्ति मार्ग को अधिक उज्वल कर दिया।

Monday 21 May 2012

चैतन्य महाप्रभु



चैतन्य महाप्रभु


चैतन्य महाप्रभु का जन्म संवत् १५४२ विक्रमी की फाल्गुनी पूर्णिमा, होली के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शचीदेवी था।


पिता सिलहट के रहनेवाले थे। नवद्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये। वहीं पर शचीदेवी से विवाह हुआ। एक के बाद एक करके उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्व रूप जब दस बरस का हुआ तब उसके एक भाई और हुआ। माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरूष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु हुआ।


बालक का नाम विश्वंभर रखा गया। प्यार से माता-पिता उसे 'निमाई' कहते।


एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिता ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवतगीता रख दी। बोले, "बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज़ उठा लो।"


बालक ने भगवतगीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा।


एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए। उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है।


बचपन में निमाई का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। शैतान लड़कों के वह नेता थे। उन दिनों देश में छूआछूत ओर ऊंच-नीच का भेदबहुत था। वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे।


एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया। जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शचीदेवी ने उन्हें सीदा दिया। ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा।


उनकी आवाज सुनते ही मिश्रजी और शचीदेवी दौड़े आये। मिश्रजी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया।


मिश्रजी और शचीदेवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये।


और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्रजी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर विश्वरूप आ गये। सबने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।


ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया।


कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, "तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो।"


ब्राह्मण गदगद् हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।"


विष्णु भगवान ने कहा, "ऐसा ही होगा।" ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया।


जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, "निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।" निमाई हंसकर कहते, "हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।"

निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे। विश्वरूप की उम्र इस समय १६-१७ साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और सन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्रजी और शचोदेवी के दु:ख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना क बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे।

निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर मिश्रजी को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाय। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुल थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते।

इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते।

पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक मिश्रजी को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे।

घर पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्भाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया। दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते।

व्याकरण के साथ-साथ अब वह और चीजें भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें 'निमाई पंडित' कहने लगे।

निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, "सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो!"

हंसते हुए निमाई ने कहा, "अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं।"

"फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं।" रघुनाथ ने जोर देकर कहा।

"जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे।"

दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये।

"निमाई ने हैरानी से पूछा, "क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो?"

"निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है।" रघुनाथ ने ठंडी सांस भरते हुए कहा।

निमाई हंसने लगे। बोले, "बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो!" यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, "यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।"

उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे।

कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते।

माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मीदेवी को वह बचपन से ही जानते थे।

इन्ही दिनों नवद्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम और फैल गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहती।

कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधानेवाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुए।

इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और मात की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते। अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शचीदेवी और निमाई लक्ष्मीदेवी के विछोह का दु:ख भूल-सा गये।

गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आनेवालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वरपुरी से निमाई की भेंट हुई। नवद्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया।

निमाई बोले, "स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये।"

संन्यासी ने सरलता से कहा, "आप तो स्वयं कृष्णरूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं। आपको कोई क्या दीक्षा देगा!"

निमाई के बहुत जोर देने पर पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, "अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।" होश आने पर अपने साथियों से बोले, "भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृन्दवन जाते हैं।"

पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, "वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। बुराइयों में अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।"

गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी।

गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्त्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते।

धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्त्तन होता। निमाई कीर्त्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते।

भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्त्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे।

बंगाल में उन दिनों कालीपूजा का बहुत प्रचार था। कालीपूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही कृष्ण-भक्ति का संदेश लेकर हुए थे।

निभाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्त्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को भी कृष्ण-भक्त  बना लिया है।

यह सुनते ही काजी जलभुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्त्तन नहीं होगा।

भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई ते निमाई पंडित मुस्काराते हुए बोल, "घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि मैं आज शहर के बाजारों में कीर्त्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्त्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।"

इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को माननेवाले लोगों ने भी मकानों को सजाया।

निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्त्तन करते चले।"हरिबोल! हरिबोल!" की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जलूस कीर्त्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करनेवालों के भी हृदय उनके चरणों में झूके हा रहे थे। जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, "काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो।" लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे।

निमाई पंडित कीर्त्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्त्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, "काजी का बुरा करनेवाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूं, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें।

काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, "काजीसाहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा।" गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।

निमाई पंडित ने प्यार से कहा, "मामाजी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई!"

काजी ने कहा, "मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था।

मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों तुम्हारा कीर्त्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्त्तन में रुकावट डालने का मुझे दु:ख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्त्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।"

इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी के बताई तो सब रोने लगे। सबने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे। बाद में सबने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े।

घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी।

केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, "अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।" निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, "गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।"

केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, "अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।"

निमाई ने कहा, "गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।"

निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढ़ूंढ़ते हुए नवद्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही दिल को हिला देनेवाला दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रहा है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न होता।

तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सबको शान्त कियां नाई ने उनके केश काठे। पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। निमाई पंडित अब चैतन्य कहलाने लगे।

कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत् भक्ति की भावना भरने लगे। उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे; किन्तु चैतन्यप्रभु इतने मशहूर थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी। एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये।

साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे।

एक बार जब वह नवद्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, "देवी, इस संन्यासी के लिए बया आज्ञा है?"

विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।" चैतन्यप्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली।

एक बार चैतन्यप्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी।

नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महाप्रभु के साथ रहने लगा।

चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे।

४८ वर्ष की उम्र में रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे।

४८ वर्ष की उम्र में रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।

Sunday 6 May 2012

संत नामदेव



संत नामदेव जी का जन्म सन १२६९ के लगभग महाराष्ट्र में कृष्णा नदी पर स्थित  नरस वामनी गांव, जिल्हा सतारा में हुआ| आप जी के माता जी का नाम गोनाबाई और पिता जी का नाम दमा शेट जी था | आप बचपन से ही विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत थे | आप जात से छिपा (कपडों पर छपाई करने वाले) थे | आचार्य श्री गरीबदास महाराज जी ने वाणी में लिखते हैं की
 
नामा छिपा पद परवान, देवल फेर छवाई दई छान |
नामदेव जी का परिवार उनके जन्म के बाद पंढरपुर में आकर रहने लगा था | माता पिता दोनों विट्ठल के भगत थे | नामदेव जी के अंदर बचपन से ही विट्ठल भगवान के प्रति बहुत प्रेम था | वह सात साल की उम्र में ही विट्ठल के भजन गाने लगे थे |
माता हर दिन विट्ठल भगवान को दूध का भोग लगाया करती थी | एक दिन माता अपने काम में काफी व्यस्त थी तो उन्होने नामदेव जी को विट्ठल भगवान को दूध का भोग लगाने को भेजा | नामदेव जी ने प्रेम से जैसे ही विट्ठल भगवान को दूध का कटोरा अर्पण किया वैसे ही भगवान ने मूर्ति में से प्रगट हो कर पूरा दूध पि लिया | नामदेव जी ने घर जाकर खुशी से सारा वृतान्त कह सुनाया | माता पिता दोनों आश्चर्य करने लगे उन्हें नामदेव की बातों पर विश्वास नहीं हुआ | वह नामदेव को साथ ले गए और भगवान को फिर से भोग लगाने को कहा | नामदेव के दूध अर्पण करने पर विट्ठल भगवान मूर्ति से प्रकट हो कर दूध पिने लगे | यह देखकर माता पिता आश्चर्य चकित रह गए | आचार्य श्री गरीबदास जी भक्ति माल में लिखते हैं,
नामा पिता पंचौ लिये बुलाय | पुजा करो हरि बिठ्ठल राय || ८४ ||
हरि बिठ्ठला की करै नामा सेव | बोलत नाहीं पाषाण का देव || ८५ ||
दूध पीवो नै गोबिन्देही राय | बिन पिये मेरा मन न पिताय || ८६ ||
नामा के दिल में जो देखी है सूध | हरि बिठ्ठला आन पिया जो दूध || ८७ ||
माता पिता कहें कैसा जुहार | आये तत्कालम लगाई न बार || ८८ ||
नामा कहै सुनो माता पिताय | हरि बिठ्ठला दूध पीया जु धाय || ८९ ||
माता पिता देखैं नामा का नेह | हरि बिठ्ठला दूध कैसे पियेह || ९० ||
दूध कटोरा लिया माता हाथ | चाल्या पिता नामदेव की जो साथ || ९१ ||
दूध पीवो ने गोविन्दे गोपाल | माता पिता भ्रम तोरो नै जाल || ९२ ||
पाहन से परमेश्वर होय | माता पिता खड़े देखैं जु दोय || ९३ ||
दोऊ कर पकर्या कटोरा कसीस | दूध पीवै हरि बिठ्ठला ईश || ९४ ||
माता पिता का जु मेट्या संदेह | पिया दूध बिठ्ठलम् जु नामा सनेह || ९५ ||
नामदेव जी विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत थे| उनका सारा दिन विट्ठल भगवान के दर्शन, भजन कीर्तन में ही गुजर जाता था |
आपजी की शादी राधाबाई से हुई | सांसारिक कार्यों में उनका जरा भी मन नहीं लगता था | परिवार की तरफ नामदेव जी बिलकुल भी ध्यान नहीं दे पाते थे |
संत ज्ञानेश्वर जी से भेंट
एक समय महान संत ज्ञानेश्वर जी अपने भाइयों निवृति, सोपान तथा बहन मुक्ताबाई के साथ पंढरपुर में आए तो चंद्रभागा नदी के किनारे नामदेव जी को कीर्तन करते देख बहुत प्रभावित हुए | दोनों संत हमेशा एकसाथ रहने लगे | अब तक नामदेव जी परमेश्वर के सगुण स्वरुप विट्ठल के उपासक थे और विट्ठल के दर्शन के बिना नहीं जीते थे, उनके लिए परमेश्वर सिर्फ विट्ठल भगवान की मूर्ति ही थी | ज्ञानेश्वर जी निर्गुण के उपासक थे | नामदेव जी के लिए पंढरपुर को छोड़ कर जाना मृत्यु के सामान प्रतीत होता था | लेकिन ज्ञानेश्वर जी के विशेष आग्रह पर उनके साथ संतों की मण्डली में चल पडे | अब  तक नामदेव जी ने कोई गुरु नहीं किया था| आप केवल विट्ठल को ही अपना गुरु मानते थे | रास्ते में मण्डली एक जगह रुकी तो सतसंग के पश्चात मण्डली संत गोरा जी (जो की एक कुम्हार थे) को सब के मटके (सिर) की जाँच करके पक्का या कच्चा बताने के लिए कहने लगे | गोरा जी ने एक लकड़ी से सब के सिर बजा कर देखे (जैसे कुम्हार मटकों को बजा कर देखता है) कोई नहीं रोया जब नामदेव जी के सिर को बजा कर देखा तो नामदेव जी जोर जोर से रोने लगे| यह देखकर सभी संत जोर जोर से हँसने लगे | इससे नामदेव जी बड़े आहत हुए और वहाँ से सीधे विट्ठल के पैरों में गिरकर रोने लगे | भगवान ने आप को गुरु करने के लिए कहा, तो नामदेव जी कहने लगे जब मुझे आपके दर्शन ही हो गए तो मुझे गुरु की क्या जरुरत है| भगवान ने कहा की नामदेव जब तक तू गुरु नहीं करता तबतक तू मेरे वास्तविक स्वरुप को नहीं पहचान सकता | नामदेव जी कहने लगे प्रभु मैं आप को कहीं भी कभी भी पहचान सकता हूं | भगवान ने नामदेव से कहा की तू आज मुझे पहचान लेना मैं तेरे आगे से निकल कर जाऊंगा | भगवान एक पठान घुडसवार के रूप में नामदेव के आगे से गुजरे तो नामदेव भगवान को पहचान न सके | इसपर नामदेव जी गुरु करने को मान गए, भगवान ने उन्हें विसोबा खेचर को गुरु करने को कहा | विसोबा खेचर ज्ञानदेव जी के शिष्य थे | नामदेव जी ने विसोबा खेचर को गुरु किया और सर्व व्यापक परमेश्वर का ज्ञान पाया | महाराज जी वाणी में लिखते हैं
गरीब नामा छिपा ओम तारी, पीछे सोहं भेद विचारी |
सार शब्द पाया जद लोई, आवागमन बहुर न होई ||
आचार्य श्री गरीब दास जी महाराज अपनी वाणी में नामदेव जी द्वारा किये गए चमत्कारों का कई जगह वर्णन करते हैं| जैसे
१.      पंढरपुर नामा परवान देवल फेर छीवाय दई छान |
२.     बिठ्ठल हो कर रोटी पाई नामदेव की कला बधाई |
एक समय आप औढा नागनाथ (शिव ज्योतिर्लिंग) में मंदिर के दरवाजे पर भजन कर रहे थे तो पंडित ने उन्हें मंदिर के पीछे जा कर भजन करने को कहा | आप पीछे जा कर भजन करने लगे तो मंदिर का मुख घूम कर पीछे की तरफ हो गया | इसी तरह भगवान ने एक बार आप जी की झोंपड़ी को ठीक किया|
एक समय आप भजन कर रहे थे तो एक कुत्ता आकर रोटी उठाकर ले भगा| नामदेव जी उस कुत्ते के पीछे घी का कटोरा लिए भागे और कहने लगे भगवान रुखी मत खाओ साथ में घी भी लेते जाओ | नामदेव का भाव देखकर भगवान को कुत्ते में से प्रगट होना पडा |
एक समय बीदर के एक ब्राह्मण ने नामदेव जी को कीर्तन के लिए बुलाया | सुलतान ने नामदेव और बाकी संगत को पकड़ कर कैद कर दिया| फिर नामदेव को इस्लाम स्वीकार करने को कहा या फिर मरी हुई गाय जीवित करने को कहा | नामदेव जी जब ना माने तो आप को मद मस्त हाथी के आगे फेंका गया तो हाथी शांत हो गया | नामदेव जी की माता ने उन्हें जान बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार करने को कहा लेकिन नामदेव जी ने मरी हुई गाय जीवित करके सुलतान को चकित कर दिया| सुलतान ने नामदेव का आदर सत्कार किया| आचार्य श्री गरीबदास जी महराज ने इस घटना का भी अपनी वाणी में उल्लेख किया हैं |

भारत भ्रमण
नामदेव जी संत ज्ञानेश्वर और अन्य संतों के साथ भारत भ्रमण को गए | मण्डली ने सम्पूर्ण भारत के तीर्थों की यात्रा की | मार्ग में अनेकों चमत्कार भी किये |
भ्रमण करते करते जब मण्डली मारवाड के रेगिस्तान में पहुंची तो सभी को बहुत प्यास लगी| फिर एक कुआ मिला पर उस का पानी बहुत गहरा था  और पानी निकालने का कोई साधन भी नहीं था | ज्ञानेश्वर जी अपनी लघिमा सिद्धि के द्वारा पक्षी बनकर पानी पीकर आ गए | नामदेव जी ने वहीँ पर कीर्तन आरंभ किया और रुक्मिणी जी को पुकारने लगे | कुआ पानी से भर कर बहने लगा | सभी ने अपनी प्यास बुझाई | यह कुआ आज भी बीकानेर से १० मील दूर कलादजी में मौजूद है |
भारत भ्रमण के बाद नामदेव जी ने भंडारा दिया जिस में स्वयं विट्ठल भगवान और रुक्मिणी जी पधारे |
जब से नामदेव और संत ज्ञानेश्वर जी मिले कभी भी अलग नहीं हुए | भारत भ्रमण के बाद ज्ञानदेव जी ने २० या २१ वर्ष की आयु में सजीव समाधी (खुद की इच्छा से शरीर त्यागना) लेने का निश्चय किया और पुणे के नजदीक आलंदी में सजीव समाधी ली | नामदेव जी उस समय उन के साथ ही थे | ज्ञानेश्वर जी की समाधि के एक वर्ष के भीतर उनके  भाई तथा गुरु निवृति , छोटे भाई सोपान और बहन मुक्ताबाई इस संसार को छोड़ गए | नामदेव जी ने इन चारों संतों के अंतिम समय का सुन्दर वर्णन अपनी रचनाओं में किया है |
इसके बाद नामदेव जी पंजाब में गुरदासपुर जिले के घुमन गांव में रहने लगे | यहाँ पर वह २० वर्ष तक रहे | घुमन में उनकी याद में समाधी मंदिर बना हुआ है | आप की कुछ रचनाओं को श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में शामिल किया गया है |


वारकरी संप्रदाय :सामान्य जनता प्रति वर्ष आषाढी और कार्तिकी एकादशी को विठ्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर की ‘वारी’ (यात्रा) किया करती है | यह प्रथा आज भी प्रचलित है | इस प्रकार की वारी (यात्रा) करने वालों को ‘वारकरी’ कहते हैं | विठ्ठलोपासना का यह ‘संप्रदाय’ ‘वारकरी’ संप्रदाय कहलाता है | नामदेव इसी संप्रदायके एक प्रमुख संत माने जाते हैं |

उन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में पंढरपुर में विट्ठल के चरणों में आषाढ़ त्रयोदशी संवत 1407 तदानुसार 3 जुलाई, 1350ई. को समाधि ली |

भक्त नामदेवजी का महाराष्ट्र में वही स्थान है, जो भक्त कबीरजी अथवा सूरदास का उत्तरी भारत में है। उनका सारा जीवन मधुर भक्ति-भाव से ओतप्रोत था। विट्ठल-भक्ति भक्त नामदेवजी को विरासत में मिली। उनका संपूर्ण जीवन मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जातपात के विषय में उनके स्पष्ट विचारों के कारण हिन्दी के विद्वानों ने उन्हें कबीरजी का आध्यात्मिक अग्रज माना है।

संत नामदेवजी ने पंजाबी में पद्य रचना भी की। भक्त नामदेवजी की बाणी में सरलता है। वह ह्रदय को बाँधे रखती है। उनके प्रभु भक्ति भरे भावों एवं विचारों का प्रभाव पंजाब के लोगों पर आज भी है। भक्त नामदेवजी के महाप्रयाण से तीन सौ साल बाद श्री गुरु अरजनदेवजी ने उनकी बाणी का संकलन श्री गुरु ग्रंथ साहिब में किया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उनके 61 पद, 3 श्लोक, 18 रागों में संकलित है।

वास्तव में श्री गुरु साहिब में नामदेवजी की वाणी अमृत का वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें संपूर्ण मानवता को पवित्रता प्रदान करने का सामर्थ्य है।