Monday 21 May 2012

चैतन्य महाप्रभु



चैतन्य महाप्रभु


चैतन्य महाप्रभु का जन्म संवत् १५४२ विक्रमी की फाल्गुनी पूर्णिमा, होली के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शचीदेवी था।


पिता सिलहट के रहनेवाले थे। नवद्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये। वहीं पर शचीदेवी से विवाह हुआ। एक के बाद एक करके उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्व रूप जब दस बरस का हुआ तब उसके एक भाई और हुआ। माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरूष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु हुआ।


बालक का नाम विश्वंभर रखा गया। प्यार से माता-पिता उसे 'निमाई' कहते।


एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिता ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवतगीता रख दी। बोले, "बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज़ उठा लो।"


बालक ने भगवतगीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा।


एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए। उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है।


बचपन में निमाई का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। शैतान लड़कों के वह नेता थे। उन दिनों देश में छूआछूत ओर ऊंच-नीच का भेदबहुत था। वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे।


एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया। जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शचीदेवी ने उन्हें सीदा दिया। ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा।


उनकी आवाज सुनते ही मिश्रजी और शचीदेवी दौड़े आये। मिश्रजी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया।


मिश्रजी और शचीदेवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये।


और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्रजी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर विश्वरूप आ गये। सबने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।


ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया।


कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, "तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो।"


ब्राह्मण गदगद् हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।"


विष्णु भगवान ने कहा, "ऐसा ही होगा।" ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया।


जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, "निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।" निमाई हंसकर कहते, "हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।"

निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे। विश्वरूप की उम्र इस समय १६-१७ साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और सन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्रजी और शचोदेवी के दु:ख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना क बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे।

निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर मिश्रजी को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाय। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुल थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते।

इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते।

पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक मिश्रजी को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे।

घर पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्भाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया। दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते।

व्याकरण के साथ-साथ अब वह और चीजें भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें 'निमाई पंडित' कहने लगे।

निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, "सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो!"

हंसते हुए निमाई ने कहा, "अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं।"

"फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं।" रघुनाथ ने जोर देकर कहा।

"जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे।"

दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये।

"निमाई ने हैरानी से पूछा, "क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो?"

"निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है।" रघुनाथ ने ठंडी सांस भरते हुए कहा।

निमाई हंसने लगे। बोले, "बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो!" यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, "यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।"

उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे।

कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेमभाव रखते।

माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मीदेवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मीदेवी को वह बचपन से ही जानते थे।

इन्ही दिनों नवद्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम और फैल गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहती।

कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मीदेवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधानेवाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वह बहुत दुखी हुए।

इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और मात की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते। अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शचीदेवी और निमाई लक्ष्मीदेवी के विछोह का दु:ख भूल-सा गये।

गया जाकर बहुत-से लोग अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। इस बार नवद्वीप से गया आनेवालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वरपुरी से निमाई की भेंट हुई। नवद्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया।

निमाई बोले, "स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये।"

संन्यासी ने सरलता से कहा, "आप तो स्वयं कृष्णरूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं। आपको कोई क्या दीक्षा देगा!"

निमाई के बहुत जोर देने पर पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, "अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।" होश आने पर अपने साथियों से बोले, "भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृन्दवन जाते हैं।"

पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, "वृन्दावन बाद में जाना। पहले नवद्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। बुराइयों में अपने यहां के लोगों का उद्धार करो।"

गुरु की आज्ञा से निमाई नवद्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी।

गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्त्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते।

धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नवद्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्त्तन होता। निमाई कीर्त्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते।

भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पांत के भेद के सब लोग उनके कीर्त्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे।

बंगाल में उन दिनों कालीपूजा का बहुत प्रचार था। कालीपूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही कृष्ण-भक्ति का संदेश लेकर हुए थे।

निभाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्त्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्त्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को भी कृष्ण-भक्त  बना लिया है।

यह सुनते ही काजी जलभुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्त्तन नहीं होगा।

भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई ते निमाई पंडित मुस्काराते हुए बोल, "घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि मैं आज शहर के बाजारों में कीर्त्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्त्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है।"

इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को माननेवाले लोगों ने भी मकानों को सजाया।

निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्त्तन करते चले।"हरिबोल! हरिबोल!" की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जलूस कीर्त्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करनेवालों के भी हृदय उनके चरणों में झूके हा रहे थे। जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, "काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो।" लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे।

निमाई पंडित कीर्त्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्त्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, "काजी का बुरा करनेवाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूं, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें।

काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, "काजीसाहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा।" गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।

निमाई पंडित ने प्यार से कहा, "मामाजी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई!"

काजी ने कहा, "मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था।

मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों तुम्हारा कीर्त्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्त्तन में रुकावट डालने का मुझे दु:ख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्त्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।"

इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करनेवालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी के बताई तो सब रोने लगे। सबने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे। बाद में सबने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े।

घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी।

केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, "अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।" निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, "गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्णभक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पांत के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।"

केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, "अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ।"

निमाई ने कहा, "गुरूदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं।"

निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढ़ूंढ़ते हुए नवद्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही दिल को हिला देनेवाला दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रहा है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न होता।

तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सबको शान्त कियां नाई ने उनके केश काठे। पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। निमाई पंडित अब चैतन्य कहलाने लगे।

कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत् भक्ति की भावना भरने लगे। उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे; किन्तु चैतन्यप्रभु इतने मशहूर थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी। एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये।

साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे।

एक बार जब वह नवद्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, "देवी, इस संन्यासी के लिए बया आज्ञा है?"

विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।" चैतन्यप्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली।

एक बार चैतन्यप्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी।

नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महाप्रभु के साथ रहने लगा।

चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे।

४८ वर्ष की उम्र में रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।चैतन्यप्रभु अधिकतर जगन्नाथपुरी में रहते थे और जगन्नाथजी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे।

४८ वर्ष की उम्र में रथ-यात्रा के दिन उनकी जीवन-लीला समाप्त हो गई। उनका शरीर चला गया, पर उनका नाम सदा अमर रहेगा। भक्ति की उन्होंने जो धारा बहाई, वह कभी नहीं सूखेगी और लोगों को हमेशा पवित्र करती रहेगी।

Sunday 6 May 2012

संत नामदेव



संत नामदेव जी का जन्म सन १२६९ के लगभग महाराष्ट्र में कृष्णा नदी पर स्थित  नरस वामनी गांव, जिल्हा सतारा में हुआ| आप जी के माता जी का नाम गोनाबाई और पिता जी का नाम दमा शेट जी था | आप बचपन से ही विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत थे | आप जात से छिपा (कपडों पर छपाई करने वाले) थे | आचार्य श्री गरीबदास महाराज जी ने वाणी में लिखते हैं की
 
नामा छिपा पद परवान, देवल फेर छवाई दई छान |
नामदेव जी का परिवार उनके जन्म के बाद पंढरपुर में आकर रहने लगा था | माता पिता दोनों विट्ठल के भगत थे | नामदेव जी के अंदर बचपन से ही विट्ठल भगवान के प्रति बहुत प्रेम था | वह सात साल की उम्र में ही विट्ठल के भजन गाने लगे थे |
माता हर दिन विट्ठल भगवान को दूध का भोग लगाया करती थी | एक दिन माता अपने काम में काफी व्यस्त थी तो उन्होने नामदेव जी को विट्ठल भगवान को दूध का भोग लगाने को भेजा | नामदेव जी ने प्रेम से जैसे ही विट्ठल भगवान को दूध का कटोरा अर्पण किया वैसे ही भगवान ने मूर्ति में से प्रगट हो कर पूरा दूध पि लिया | नामदेव जी ने घर जाकर खुशी से सारा वृतान्त कह सुनाया | माता पिता दोनों आश्चर्य करने लगे उन्हें नामदेव की बातों पर विश्वास नहीं हुआ | वह नामदेव को साथ ले गए और भगवान को फिर से भोग लगाने को कहा | नामदेव के दूध अर्पण करने पर विट्ठल भगवान मूर्ति से प्रकट हो कर दूध पिने लगे | यह देखकर माता पिता आश्चर्य चकित रह गए | आचार्य श्री गरीबदास जी भक्ति माल में लिखते हैं,
नामा पिता पंचौ लिये बुलाय | पुजा करो हरि बिठ्ठल राय || ८४ ||
हरि बिठ्ठला की करै नामा सेव | बोलत नाहीं पाषाण का देव || ८५ ||
दूध पीवो नै गोबिन्देही राय | बिन पिये मेरा मन न पिताय || ८६ ||
नामा के दिल में जो देखी है सूध | हरि बिठ्ठला आन पिया जो दूध || ८७ ||
माता पिता कहें कैसा जुहार | आये तत्कालम लगाई न बार || ८८ ||
नामा कहै सुनो माता पिताय | हरि बिठ्ठला दूध पीया जु धाय || ८९ ||
माता पिता देखैं नामा का नेह | हरि बिठ्ठला दूध कैसे पियेह || ९० ||
दूध कटोरा लिया माता हाथ | चाल्या पिता नामदेव की जो साथ || ९१ ||
दूध पीवो ने गोविन्दे गोपाल | माता पिता भ्रम तोरो नै जाल || ९२ ||
पाहन से परमेश्वर होय | माता पिता खड़े देखैं जु दोय || ९३ ||
दोऊ कर पकर्या कटोरा कसीस | दूध पीवै हरि बिठ्ठला ईश || ९४ ||
माता पिता का जु मेट्या संदेह | पिया दूध बिठ्ठलम् जु नामा सनेह || ९५ ||
नामदेव जी विट्ठल भगवान के बहुत बड़े भगत थे| उनका सारा दिन विट्ठल भगवान के दर्शन, भजन कीर्तन में ही गुजर जाता था |
आपजी की शादी राधाबाई से हुई | सांसारिक कार्यों में उनका जरा भी मन नहीं लगता था | परिवार की तरफ नामदेव जी बिलकुल भी ध्यान नहीं दे पाते थे |
संत ज्ञानेश्वर जी से भेंट
एक समय महान संत ज्ञानेश्वर जी अपने भाइयों निवृति, सोपान तथा बहन मुक्ताबाई के साथ पंढरपुर में आए तो चंद्रभागा नदी के किनारे नामदेव जी को कीर्तन करते देख बहुत प्रभावित हुए | दोनों संत हमेशा एकसाथ रहने लगे | अब तक नामदेव जी परमेश्वर के सगुण स्वरुप विट्ठल के उपासक थे और विट्ठल के दर्शन के बिना नहीं जीते थे, उनके लिए परमेश्वर सिर्फ विट्ठल भगवान की मूर्ति ही थी | ज्ञानेश्वर जी निर्गुण के उपासक थे | नामदेव जी के लिए पंढरपुर को छोड़ कर जाना मृत्यु के सामान प्रतीत होता था | लेकिन ज्ञानेश्वर जी के विशेष आग्रह पर उनके साथ संतों की मण्डली में चल पडे | अब  तक नामदेव जी ने कोई गुरु नहीं किया था| आप केवल विट्ठल को ही अपना गुरु मानते थे | रास्ते में मण्डली एक जगह रुकी तो सतसंग के पश्चात मण्डली संत गोरा जी (जो की एक कुम्हार थे) को सब के मटके (सिर) की जाँच करके पक्का या कच्चा बताने के लिए कहने लगे | गोरा जी ने एक लकड़ी से सब के सिर बजा कर देखे (जैसे कुम्हार मटकों को बजा कर देखता है) कोई नहीं रोया जब नामदेव जी के सिर को बजा कर देखा तो नामदेव जी जोर जोर से रोने लगे| यह देखकर सभी संत जोर जोर से हँसने लगे | इससे नामदेव जी बड़े आहत हुए और वहाँ से सीधे विट्ठल के पैरों में गिरकर रोने लगे | भगवान ने आप को गुरु करने के लिए कहा, तो नामदेव जी कहने लगे जब मुझे आपके दर्शन ही हो गए तो मुझे गुरु की क्या जरुरत है| भगवान ने कहा की नामदेव जब तक तू गुरु नहीं करता तबतक तू मेरे वास्तविक स्वरुप को नहीं पहचान सकता | नामदेव जी कहने लगे प्रभु मैं आप को कहीं भी कभी भी पहचान सकता हूं | भगवान ने नामदेव से कहा की तू आज मुझे पहचान लेना मैं तेरे आगे से निकल कर जाऊंगा | भगवान एक पठान घुडसवार के रूप में नामदेव के आगे से गुजरे तो नामदेव भगवान को पहचान न सके | इसपर नामदेव जी गुरु करने को मान गए, भगवान ने उन्हें विसोबा खेचर को गुरु करने को कहा | विसोबा खेचर ज्ञानदेव जी के शिष्य थे | नामदेव जी ने विसोबा खेचर को गुरु किया और सर्व व्यापक परमेश्वर का ज्ञान पाया | महाराज जी वाणी में लिखते हैं
गरीब नामा छिपा ओम तारी, पीछे सोहं भेद विचारी |
सार शब्द पाया जद लोई, आवागमन बहुर न होई ||
आचार्य श्री गरीब दास जी महाराज अपनी वाणी में नामदेव जी द्वारा किये गए चमत्कारों का कई जगह वर्णन करते हैं| जैसे
१.      पंढरपुर नामा परवान देवल फेर छीवाय दई छान |
२.     बिठ्ठल हो कर रोटी पाई नामदेव की कला बधाई |
एक समय आप औढा नागनाथ (शिव ज्योतिर्लिंग) में मंदिर के दरवाजे पर भजन कर रहे थे तो पंडित ने उन्हें मंदिर के पीछे जा कर भजन करने को कहा | आप पीछे जा कर भजन करने लगे तो मंदिर का मुख घूम कर पीछे की तरफ हो गया | इसी तरह भगवान ने एक बार आप जी की झोंपड़ी को ठीक किया|
एक समय आप भजन कर रहे थे तो एक कुत्ता आकर रोटी उठाकर ले भगा| नामदेव जी उस कुत्ते के पीछे घी का कटोरा लिए भागे और कहने लगे भगवान रुखी मत खाओ साथ में घी भी लेते जाओ | नामदेव का भाव देखकर भगवान को कुत्ते में से प्रगट होना पडा |
एक समय बीदर के एक ब्राह्मण ने नामदेव जी को कीर्तन के लिए बुलाया | सुलतान ने नामदेव और बाकी संगत को पकड़ कर कैद कर दिया| फिर नामदेव को इस्लाम स्वीकार करने को कहा या फिर मरी हुई गाय जीवित करने को कहा | नामदेव जी जब ना माने तो आप को मद मस्त हाथी के आगे फेंका गया तो हाथी शांत हो गया | नामदेव जी की माता ने उन्हें जान बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार करने को कहा लेकिन नामदेव जी ने मरी हुई गाय जीवित करके सुलतान को चकित कर दिया| सुलतान ने नामदेव का आदर सत्कार किया| आचार्य श्री गरीबदास जी महराज ने इस घटना का भी अपनी वाणी में उल्लेख किया हैं |

भारत भ्रमण
नामदेव जी संत ज्ञानेश्वर और अन्य संतों के साथ भारत भ्रमण को गए | मण्डली ने सम्पूर्ण भारत के तीर्थों की यात्रा की | मार्ग में अनेकों चमत्कार भी किये |
भ्रमण करते करते जब मण्डली मारवाड के रेगिस्तान में पहुंची तो सभी को बहुत प्यास लगी| फिर एक कुआ मिला पर उस का पानी बहुत गहरा था  और पानी निकालने का कोई साधन भी नहीं था | ज्ञानेश्वर जी अपनी लघिमा सिद्धि के द्वारा पक्षी बनकर पानी पीकर आ गए | नामदेव जी ने वहीँ पर कीर्तन आरंभ किया और रुक्मिणी जी को पुकारने लगे | कुआ पानी से भर कर बहने लगा | सभी ने अपनी प्यास बुझाई | यह कुआ आज भी बीकानेर से १० मील दूर कलादजी में मौजूद है |
भारत भ्रमण के बाद नामदेव जी ने भंडारा दिया जिस में स्वयं विट्ठल भगवान और रुक्मिणी जी पधारे |
जब से नामदेव और संत ज्ञानेश्वर जी मिले कभी भी अलग नहीं हुए | भारत भ्रमण के बाद ज्ञानदेव जी ने २० या २१ वर्ष की आयु में सजीव समाधी (खुद की इच्छा से शरीर त्यागना) लेने का निश्चय किया और पुणे के नजदीक आलंदी में सजीव समाधी ली | नामदेव जी उस समय उन के साथ ही थे | ज्ञानेश्वर जी की समाधि के एक वर्ष के भीतर उनके  भाई तथा गुरु निवृति , छोटे भाई सोपान और बहन मुक्ताबाई इस संसार को छोड़ गए | नामदेव जी ने इन चारों संतों के अंतिम समय का सुन्दर वर्णन अपनी रचनाओं में किया है |
इसके बाद नामदेव जी पंजाब में गुरदासपुर जिले के घुमन गांव में रहने लगे | यहाँ पर वह २० वर्ष तक रहे | घुमन में उनकी याद में समाधी मंदिर बना हुआ है | आप की कुछ रचनाओं को श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में शामिल किया गया है |


वारकरी संप्रदाय :सामान्य जनता प्रति वर्ष आषाढी और कार्तिकी एकादशी को विठ्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर की ‘वारी’ (यात्रा) किया करती है | यह प्रथा आज भी प्रचलित है | इस प्रकार की वारी (यात्रा) करने वालों को ‘वारकरी’ कहते हैं | विठ्ठलोपासना का यह ‘संप्रदाय’ ‘वारकरी’ संप्रदाय कहलाता है | नामदेव इसी संप्रदायके एक प्रमुख संत माने जाते हैं |

उन्होंने अस्सी वर्ष की आयु में पंढरपुर में विट्ठल के चरणों में आषाढ़ त्रयोदशी संवत 1407 तदानुसार 3 जुलाई, 1350ई. को समाधि ली |

भक्त नामदेवजी का महाराष्ट्र में वही स्थान है, जो भक्त कबीरजी अथवा सूरदास का उत्तरी भारत में है। उनका सारा जीवन मधुर भक्ति-भाव से ओतप्रोत था। विट्ठल-भक्ति भक्त नामदेवजी को विरासत में मिली। उनका संपूर्ण जीवन मानव कल्याण के लिए समर्पित रहा। मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जातपात के विषय में उनके स्पष्ट विचारों के कारण हिन्दी के विद्वानों ने उन्हें कबीरजी का आध्यात्मिक अग्रज माना है।

संत नामदेवजी ने पंजाबी में पद्य रचना भी की। भक्त नामदेवजी की बाणी में सरलता है। वह ह्रदय को बाँधे रखती है। उनके प्रभु भक्ति भरे भावों एवं विचारों का प्रभाव पंजाब के लोगों पर आज भी है। भक्त नामदेवजी के महाप्रयाण से तीन सौ साल बाद श्री गुरु अरजनदेवजी ने उनकी बाणी का संकलन श्री गुरु ग्रंथ साहिब में किया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में उनके 61 पद, 3 श्लोक, 18 रागों में संकलित है।

वास्तव में श्री गुरु साहिब में नामदेवजी की वाणी अमृत का वह निरंतर बहता हुआ झरना है, जिसमें संपूर्ण मानवता को पवित्रता प्रदान करने का सामर्थ्य है।