Wednesday 25 April 2012

समर्थ गुरू रामदास

समर्थ गुरू रामदास (1608-1682)









समर्थ रामदास का मूल नाम 'नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी' (ठोसर) था। इनका जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद  जिले के जांब नामक स्थान पर रामनवमी के दिन मध्यान्ह में पर शके १५३० सन १६०८ में हुआ। समर्थ रामदास जी के पिता का नाम सूर्याजी पन्त था। वे सूर्यदेव के उपासक थे और प्रतिदिन 'आदित्यह्रदय' स्तोत्र का पाठ करते थे। वे गाँव के पटवारी थे लेकिन उनका बहुत सा समय उपासना में ही बीतता था। उनकी माता का नाम राणुबाई था। वे संत एकनाथ जी के परिवार की दूर की रिश्तेदार थी। वे भी सूर्य नारायण की उपासिका थीं। सूर्यदेव की कृपा से सूर्याजी पन्त को दो पुत्र गंगाधर स्वामी और नारायण (समर्थ रामदास) हुए। समर्थ रामदास जी के बड़े भाई का नाम गंगाधर था। उन्हें सब 'श्रेष्ठ' कहते थे। वे अध्यात्मिक सत्पुरुष थे। उन्होंने 'सुगमोपाय ' नामक ग्रन्थ की रचना की है। मामा का नाम भानजी गोसावी था। वे प्रसिद्ध कीर्तनकार थे।



एक दिन माता राणुबाई ने नारायण (यह उनके बचपन का नाम था) से कहा, 'तुम दिनभर शरारत करते हो, कुछ काम किया करो। तुम्हारे बड़े भाई गंगाधर अपने परिवार की कितनी चिंता करते हैं!' यह बात नारायण के मन में घर कर गई। दो-तीन दिन बाद यह बालक अपनी शरारत छोड़कर एक कमरे में ध्यानमग्न बैठ गया। दिनभर में नारायण नहीं दिखा तो माता ने बड़े बेटे से पूछा कि नारायण कहाँ है।
उसने भी कहा, 'मैंने उसे नहीं देखा।' दोनों को चिंता हुई और उन्हें ढूँढने निकले पर, उनका कोई पता नहीं चला। शाम के वक्त माता ने कमरे में उन्हें ध्यानस्थ देखा तो उनसे पूछा, 'नारायण, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?' तब नारायण ने जवाब दिया, 'मैं पूरे विश्व की चिंता कर रहा हूँ।'
इस घटना के बाद नारायण की दिनचर्या बदल गई। उन्होंने समाज के युवा वर्ग को यह समझाया कि स्वस्थ एवं सुगठित शरीर के द्वारा ही राष्ट्र की उन्नति संभव है। इसलिए उन्होंने व्यायाम एवं कसरत करने की सलाह दी एवं शक्ति के उपासक हनुमानजी की मूर्ति की स्थापना की। समस्त भारत का उन्होंने पद-भ्रमण किया। जगह-जगह पर हनुमानजी की मूर्ति स्थापित की, जगह-जगह मठ एवं मठाधीश बनाए ताकि पूरे राष्ट्र में नव-चेतना का निर्माण हो।



12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर वे विवाहमंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्रीरामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम "रामदास" पड़ा।
गृहत्याग करने के बाद १२ वर्ष के नारायण नासिक के पास टाकली नाम के गाव को आए |वहा नंदिनी और गोदावरी नदियोंका संगम है |इसी भूमि को अपनी तपोभूमि बनाने का निश्चय करके उन्होंने कठोर तप शुरू किया|वे प्रातः ब्राह्ममुहूर्त को उठकर प्रतिदिन १२०० सूर्यनमस्कार लगाते थे |उसके बाद गोदावरी नदी में खड़े होकर राम नाम और गायत्री मंत्र का जाप करते थे|दोपहर में केवल ५ घर की भिक्षा मांग कर वह प्रभु रामचंद्र जी को भोगलगाते थे|उसके बाद प्रसाद का भाग प्राणियों और पंछियों को खिलने के बाद स्वयं ग्रहण करते थे|दोपहर में वे वेद,वेदांत, उपनिषद् ,शास्त्र ग्रन्थोंका अध्ययन करते थे|उसके बाद फिर नामजप करते थे|उन्होंने १३ करोड राम नाम जप १२ वर्षों में किया | ऐसा कठोर तप उन्होंने १२ वर्षों तक किया | इसी समय में उन्होंने स्वयं एक रामायण लिखा|यही पर प्रभु रामचन्द्र की जो प्रार्थनाये उन्होंने रची हैं वह वह 'करुणाष्टक' नाम से प्रसिद्ध है |तप करने के बाद उन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ ,तब उनकी आयु २४ वर्षों की थी |टाकली में ही समर्थ रामदास जी प्रथम हनुमान का मंदिर स्थापन किया |


आत्मसाक्षात्कार होने के बाद समर्थ रामदास तीर्थयात्रा पर निकल पड़े| 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे।घुमते घुमते वे हिमालय आये |हिमालय का पवित्र वातावरण देखने के बाद मूलतः विरक्त स्वभाव के रामदास जी के मन का वैराग्यभाव जागृत हो गया |अब आत्मसाक्षात्कार हो गया ,ईश्वर दर्शन हो गया ,तो इस देह को धारण करने की क्या जरुरत है ?ऐसा विचार उनके मन में आया |उन्होंने खुद को १००० फीट से मंदाकिनी नदी में झोंक दिया |लेकिन उसी समय प्रभुराम ने उन्हें ऊपर ही उठ लिया और धर्म कार्य करने की आज्ञा दी |अपने शरीर को धर्म के लिए अर्पित करने का निश्चय उन्होंने कर दिया |तीर्थ यात्रा करते हुए वे श्रीनगर आए| वहा उनकी भेंट सिखोंके के गुरु हरगोविंद जी महाराज से हुई |गुरु हरगोविंद जी महाराज ने उन्हें धर्म रक्षा हेतु शस्त्र सज्ज रहने का मार्गदर्शन किया | इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्षसाधना के साथ ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्यस्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।



समर्थ रामदास ने उ. भारत में, मथुरा, द्वारका व बनारस में मठस्थापना की। उनके अयोध्या मठ के मुखिया विश्वनाथजी ब्रह्मचारी थे, जिन्होंने औरंगजेब के समय हुए राम जन्मभूमि संघर्ष में प्राण न्यौछावर किए। देशाटन पूर्ण कर समर्थ महाराष्ट्र लौटे (1644)। उन्होंने महाराष्ट्र में कई मठ बनाए। योग्य व्यक्तियों को मठाधीश बनाया, यहाँ तक कि परंपरा को भंग कर उन्होंने विधवाओं को भी मठाधीश बनाया! उनके भक्तों में मुस्लिम भी थे, जिनकी कब्रें सज्जनगढ़ ( सातारा) में हैं।

महाराष्ट्र में उन्होंने रामभक्ति के साथ हनुमान भक्ति का भी प्रचार किया। हनुमान मंदिरों के साथ उन्होंने अखाड़े बनाकर महाराष्ट्र के सैनिकीकरण की नींव रखी- जो राज्य स्थापना में बदली। संत तुकाराम ने स्वयं की मृत्युपूर्व शिवाजी को कहा कि अब उनका भरोसा नहीं अतः आप समर्थ में मन लगाएँ। तुकाराम की मृत्यु बाद शिवाजी ने समर्थ का शिष्यत्व ग्रहण किया (अनु. 1649-52)।

समर्थ ने अपनी महान कृति 'श्रीदासबोध' से लेखन प्रारंभ किया (अनु. 1646)। गुरु-शिष्य संवादरूप इस ग्रंथ में 200 विषयों पर विवेचन है। आध्यात्मिकता के साथ इसमें व्यक्ति परीक्षा, गृहस्थी, व्यवहार, संगठन, राजनीति, कूटनीति, सावधानत, गुप्त संगठन, शक्तिसंचय व अंततः अत्याचारी शत्रु से राज्य छीन स्वयं का राज्य स्थापन करने का श्रेष्ठ विवेचन है। राजकीय/ सामाजिक कार्यार्थ यह श्रेष्ठ ग्रंथ है जो बताता है कि समर्थ संतरूप चाणक्य ही थे।

उनकी अन्य रचनाएँ हैं, 'मनोबोध श्लोक' (205 श्लोक), मारुति स्तोत्र, करुणाष्टक, राम व कृष्ण पर पद्य, आरतियाँ (प्रचलित मराठी गणेश आरती), रामदासी रामायण (अपूर्ण) हिन्दी में भी उनकी पद्य रचनाएँ हैं।

समर्थ सुख-दुख से परे थे परंतु एक प्रसंग ने उन्हें दुखी किया। पिता के सामने पुत्र की व गुरु के सामने शिष्य की मृत्यु दुर्भाग्य ही होती है। समर्थ के सामने ही शिवाजी की मृत्यु हुई और दुख तो तब हुआ जब उनके पुत्र संभाजी ने क्रोध से हत्याएँ कीं। यह जानकर उन्होंने संभाजी को पद्य में पत्र लिखकर, बताया कि बिगड़े प्रशासन को कैसे सुधारा जाए। उनकी मृत्यु (1682) पूर्व उन्होंने शिष्यों को कहा कि वे दुख न करें व 'श्रीदासबोध' को ही उनके स्थान पर मानें।

गुप्त कार्य में लगा व्यक्ति कैसा हो, इसके लिए उन्होंने कहा है, 'जाए वह स्थान कहे ना। कहे स्थान जाए ना। अपनी स्थिति अनुमाना। आने न दे।' समाज व राष्ट्र हेतु, आध्यात्मिकता के साथ, प्रपंच (गृहस्थी), सत्ता, संपत्ति, कूटनीति व राजनीति, प्रशासन व सूझबूझ की दृष्टि से, दासबोध के कुछ भाग चाणक्य की अर्थशास्त्र के समान है। यही रामदासजी के उपदेश आज भी देश के लिए अमूल्य हैं। जिनका हम सभी को पालन करना चाहिए।

भारत संतों की भूमि है। विदेशी आक्रमण द्वारा, धर्म संस्कृति संकट में आने पर संतों ने राज्य स्थापना का कार्य किया। उ. भारत में यह कार्य सिख गुरुओं व द. भारत में माधव विद्यारण्य स्वामी (विजयनगर राज्य स्थापना) व इस राज्य के पतन पश्चात, समर्थ रामदास ने किया। यदि वे संत न होते तो द. भारत के 'चाणक्य' कहलाते। 



कुछ घटनाएं :


समर्थ गुरु रामदास जी एक बार भाव में अपने इष्टदेव श्रीराम की तरह ही वेशभूषा करके हाथ में धनुष-बाण लिए घूम रहे थे । इस पर कुछ लोगों ने टिपण्णी कर दी की क्या आप श्री राम हैं ? स्वामी जी ने उत्तर में हाँ कहा तो उन्होंने कहा फिर आसमान में उड़ते उस परिंदे को आप मारकर दिखाएँ ।  स्वामी जी का बाण लगते ही परिंदा धरती पर गिरा व मर गया ।  इस पर वोही लोग कहने लगे की आपने अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए इस निर्दोष पक्षी को मार डाला ये सुनकर स्वामी समर्थ राम दास जी दुखित हो गए । वे उस पक्षी को अपने हाथ में लेकर प्रभु श्रीराम को स्मरण कर कहने लगे ' हे प्रभु यदि मैंने इसे जान कर नहीं मारा तो ये अभी जी उठे कहते हैं ये कहते कहते समर्थ गुरु रामदास जी की आखों में अश्रु आ गए सबके देखते ही देखते वो पक्षी जी उठा और उड़ गया । 


समर्थ गुरु रामदास जी जब काफी सालों के बाद अपने नगर में आये तो लोगों ने उन्हें पहचान लिया और कहा आपके वियोग में आपकी माँ की रोते रोते नेत्रों की ज्योति चली गयी । 
स्वामी जी अपने घर पर आये और भिक्षा के लिए कहने लगे । उनकी आवाज़ उनकी माँ पहचान गयीं और नारायण कहते हुए उनके गले लग गयी । स्वामी जी ने अपने हाथों को अपनी माँ की आखों पर लगाया और उनकी माँ को फिर से दिखाई पड़ने लगा । 

समर्थ गुरू रामदास (1608-1682) ने साधना और ईश्वर साक्षात्कार के बाद पहली यात्रा काशी की की। वहाँ जब वे काशी विश्वनाथ के मंदिर पहुँचे तो वहाँ के कुछ पुजारीगणों ने अनकी वेशभूशा देखकर उन्हें बा्रह्मणों से भिन्न इतर जाति का मान लिया। उनने शिवजी की पिंडी के दर्शन करने से मना कर दिया। इस पर वे` जैसी प्रभु रामचंन्द्र जी की इच्छा´ कहते हुए बाहर से दंडवत् प्रणाम कर लौट पड़े। कहा जाता है कि उनके बाहर निकलते ही पुजारियों ने देखा कि पिंडी लुप्त हो गई है। वहाँ विद्यमान प्रतिमा भी नही है। वे घबराए। दौड़कर समर्थ रामदास से क्षमा-याचना की। जब वे पुन: मंदिर में आए, तब दृश्य पुन: पहले जैसा हो गया। इस चमत्कारी घटना ने काशी में उसका सम्मान बढ़ा दिया। चारों ओर उन्हीं की चर्चा होने लगी।





छत्रपति शिवाजी ने अपने पराक्रम से अनेक लड़ाइयां जीतीं। इससे उनके मन में थोड़ा अभिमान आ गया। उन्हें लगता था कि उनके जैसा वीर धरती पर और कोई नहीं है। कई बार उनका यह अभिमान औरों के सामने भी झलक पड़ता। एक दिन शिवाजी के महल में उनके गुरु समर्थ रामदास पधारे। शिवाजी वैसे तो रामदास का काफी आदर करते थे लेकिन उनके सामने भी उनका अभिमान व्यक्त हो ही गया, ‘गुरुजी अब मैं लाखों लोगों का रक्षक और पालक हूं। मुझे उनके सुख-दुख और भोजन-वस्त्र आदि की काफी चिंता करनी पड़ती है।’


रामदास समझ गए कि उनके शिष्य के मन में राजा होने का अभिमान हो गया है। इस अभिमान को तोड़ने के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची। शाम को शिवाजी के साथ भ्रमण करते हुए रामदास ने अचानक उन्हें एक बड़ा पत्थर दिखाते हुए कहा, ‘शिवा, जरा इस पत्थर को तोड़कर तो देखो।’ शिवाजी ने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए तत्काल वह पत्थर तोड़ डाला। किंतु यह क्या, पत्थर के बीच से एक जीवित मेंढक एक पतंगे को मुंह में दबाए बैठा था।


इसे देखकर शिवाजी चकित रह गए। समर्थ रामदास ने पूछा, ‘पत्थर के बीच बैठे इस मेंढक को कौन हवा-पानी दे रहा है? इसका पालक कौन है? कहीं इसके पालन की जिम्मेदारी भी तुम्हारे कंधों पर तो नहीं आ पड़ी है?’ शिवाजी गुरु की बात का मर्म समझकर लज्जित हो गए। गुरु ने उन्हें समझाया, ‘पालक तो सबका एक ही है और वह परम पिता परमेश्वर। हम-तुम तो माध्यम भर हैं। इसलिए उस पर विश्वास रखकर कार्य करो। तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी।’



1 comment:

  1. बहुत विस्तृत जानकारी दी है आपने गुरु रामदास के बारे में।
    आभार आपका।

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